रंगहीन
जब चली कुछ दूर तो कुछ देखा,
कुछ
समझा
मैंने,
दुनिया के ये रंग और ये रंगीन
लोग,
जब देखा खुदको
एक
नजर,
खुदी
को
रंगा
पाया
मैंने,
तब लड़खड़ाई मैं इस मतवाली
भीड़
की
भेड़
चाल
में,
उस वक़्त तो मेरा भी गुरुर
खुछ
झड
सा
गया,
फिर संभले हुए व्यक्तित्व
को
लेकर
चली
मैं,
उस भीड़ को दरकिनार
करते
हुए !
फिर समझा मैंने
नगण्यता
और
शून्यता
का
अंतर !
फिर समझा मैंने
रंगहीन
होना
बदरंगता
से
बेहतर !!